सतयुग काल से मनाये जाने वाले होली पर्व की जाने कैसे व किस स्थान से हुई थी सुरूआत
मदन पाल सिंह अर्कवंशी
सीतापुर : उत्तर प्रदेश के नैमिषारण्य (Naimisharanya) क्षेत्र से ही सतयुग काल(golden age) में होली पर्व की सुरूआत(Holi festival begins) हुई. जो तब से पूरें भारत में होली पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर माना जा रहा है. नैमिषारण्य क्षेत्र के मिश्रित में हिरण्यकश्यप (Hiranyakashipu) की बहन होलिका(Holika) ने प्रहलाद(Prahlad) को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठी थी.
नैमिषारण्य क्षेत्र को अष्ठम वैकुंठ के नाम भी जाता है जाना
पुराणों के अनुसार सतयुग काल में हिरण्यकश्यप शक्तिशाली राजा था. हिरण्यकश्यप की राजधानी को हरिद्रोही के नाम से भी जाना गया. जिसे वर्तमान समय में हरदोई जनपद के नाम से जाना जाता है. वर्तमान समय में भौगोलिक परिस्थितियां बदल जाने के कारण मिश्रित कस्बा सीतापुर जनपद के अन्तर्गत आता है जो हरदोई जनपद का बार्डर है. जो सतयुग काल में नीम व आरण्य(रंड़ा) के पेड़ों का विशाल जंगल था.
कुछ विद्वानों का यह भी मनना है इस क्षेत्र में विशाल नीम के जंगल के कारण ही इस क्षेत्र को नीमसार, नैमिष, नैमिषारण्य के नाम पडा होगा ऐसा मानते . वही कुछ विद्वानों लेख के अनुसार महार्षि निमियार्क के नाम पर नैमिष, नैमिषारण्य जाना गया. यह क्षेत्र महर्षि कस्यप सहित 88 हजार ऋषियों व देवी देवताओं की तपोभूमि रही है इस क्षेत्र को अष्ठम वैकुंठ भी कहा जाता है.
नैमिषारण्य क्षेत्र से हुई थी होली पर्व की सुरूआत
मिश्रित तीर्थ के पुजारी राहुल शर्मा ने बताया कि पास में हरदोई जनपद पडता है जहां पर 84 कोसी परिक्रमा के तीन पडाव पडते है हर्रैया, गिरधरपुर उमरारी, साकिन गोपालपुर यही हिरण्यकश्यप की राजधानी थी. जब उन्होंने अपने पुत्र प्रहलाद को धाह करने का प्रयास किया और अपनी बहन होलिका से कहा हे होलिका तुम्हें किसी प्रकार की अग्नि जला नही सकती है मेरा पुत्र केवल नारायण का स्मरण कर रहा है और उसे एक जलती हुई चिता पर लेकर बैठ जाए जिससे वह भस्म हो जाये और मेरा बर्चस्व जैसा है वैसा कायम रहे.
इतना वचन सुनकर के होली ने हिरण्यकश्यप से कहा मेरा अहोभाग्य मेरा भाई मुझसे कोई लाभ लेना चहता है मुझे कोई कार्य सैपा है तपोवन आरण्य में ही एक चिता लगाई और उसी पर प्रहलाद को लेकर बैठ गई और स्वयं चुनरी को ओढ़ लिया और उनके जो सिपाहीगण थे उन्होंने उस चिता को जला दिया जब चिता धू धू कर जलने लगी तो वह चुनरी नारायण की कृपा से प्रहलाद के ऊपर गिर गई. होलिका उसी चिता में भस्म हो गई. अधर्म की हार हुई और धर्म की विजय हुई.
जब गांववासियों ने सुबह देखा तो प्रहलाद एक दूसरे उस चिता की राख को लगाकर उत्सव मना रहे थे तभी ग्रामवासियों ने रंगों का प्रबंध किया और एक दूसरे को रंग लगाकर होलिका मनाया. नैमिषारण्य क्षेत्र के इसी स्थान (मिश्रित) से होली का पर्व प्रारंभ हुआ. आज भी 84 कोसी परिक्रमा में गये हुए सभी तीर्थयात्री यही पर पंच दिवस तक पंच दिवसी परिक्रमा देते है और होली का महत्व यही पर मनाते है.
होली पर्व की क्या है पैराणिक कथा
पुरातन काल की कथानुसार अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए राक्षस राज हिरण्यकशप ने कठिन तपस्या करके ब्रह्माजी व शिवजी को प्रसन्न कर उनसे अजेय होने का वरदान प्राप्त कर लिया. वरदान प्राप्त करते ही वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा और उन्हें यातनाएं और कष्ट देने लगा. जिससे प्रजा अत्यंत दुखी रहती थी. इन्हीं दिनों हिरण्यकशप की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रहलाद रखा गया. राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी बचपन से ही श्री हरि भक्ति से प्रहलाद को गहरा लगाव था. हिरण्यकशप ने प्रहलाद का मन भगवद भक्ति से हटाने के लिए कई प्रयास किए, परन्तु वह सफल नहीं हो सका. यहां तक कि उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठालकर प्रहलाद को जलाने का षड्यंत्र भी रचा. होलिका हिरण्याक्ष और हिरण्यकशप नामक दैत्य की बहन और प्रहलाद की बुआ थी. उसको यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी. इस वरदान का लाभ उठाने के लिए विष्णु-विरोधी हिरण्यकशप ने उसे आज्ञा दी कि वह प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाए, जिससे प्रहलाद की मृत्यु हो जाए. होलिका ने हिरण्यकश्यप की राजधानी सीमा क्षेत्र में आनेवाले तपोवन आरण्य (जंगल) नैमिषारण्य क्षेत्र में पहुच कर उसने सूखी लकडिय़ों से चिता तैयार करवाई और उसी चिता पर प्रहलाद को लेकर बैठ गई. ईश्वर की कृपा से प्रहलाद बच गया और होलिका उसी चिता में जल गई. चिता सांत होने के बाद प्रहलाद चिता की राख को उछालने लगा, पौराणिक मान्यता के अनुसार तभी से प्रति वर्ष होली पर्व को बड़ी धूमधाम से भारत में मनाया जाता है.
प्रति वर्ष फाल्गुन मास में नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाली 84 कोसी परिक्रमा को होली परिक्रमा मेले के नाम लोग जानते है.
साधु संत व श्रद्धालु जब नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाली 84 कोस की परिक्रमा अंतिम पडाव स्थान मिश्रित में पूर्ण कर लेते है तो फाल्गुन मह की पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात एक दूसरे को रंग गुलाल लगाते है. जिसके बाद साधु ,संत व श्रद्धालु अपने गंतव्य(आश्रम, घरों) के लिए प्रस्थान कर जाते है.