सनातन का शाब्दिक अर्थ है शाश्वत अर्थात सदा रहने वाला
सनातन धर्म
(सुबोध शर्मा , अंबाला )
सनातन धर्म सृष्टि के प्रारंभ से ही वैदिक काल में ऋषियों के द्वारा नाम दिया गया । वस्तुत सनातन शब्द बहुत ही व्यापक है और इस सृष्टि मात्र के लिए एक ही है l यह सभी जीवो के लिए , विश्व के लिए एक ही है । संपूर्ण विश्व की उत्पत्ति के साथ-साथ ऋषियों ने सृष्टि मात्र के लिए वैदिक धर्म रूप में सनातन धर्म नाम दिया । सृष्टि में कुछ भी अन्य नाम नहीं था तब आदिकाल से सनातन धर्म व्याप्त है । सनातन का शाब्दिक अर्थ है शाश्वत अर्थात सदा रहने वाला , जिसका कभी नाश नहीं हो सके , जो सृष्टि के आदि से था आज भी है और हमेशा युगों युगों तक रहेगा और संपूर्ण सृष्टि के लिए है जिसका नाश नहीं हो सकता ना आदि है और ना ही अंत , वही तो सनातन है अर्थात जीव मात्र के लिए धर्म एक ही है , वह है सनातन धर्म । धर्म का उल्लेख ऋग्वेद में वर्णित है और ऋषियों ने कहा है ,
” धरियाती इति धर्म: , ” अर्थात जिसने हमें धारण कर रखा है अर्थात जीवात्मा चेतन सनातन है और इसी कारण इसका धर्म भी सनातन ही है। शरीर तो प्राकृतिक है , नाशवान है अतः इसका धर्म है नाश हो जाना परंतु मूल रूप से मानव जीवन में सनातन धर्म ही है । सनातन धर्म किसी जीव के शरीर का धर्म नहीं हो सकता इसलिए कि शरीर का धर्म ,गुण , स्वभाव तो नाश होना है अतः इसका प्राकृतिक गुण ही नाशवान है । परंतु जीवात्मा अविनाशी है, चेतन है , अतः यह सनातन है , अविनाशी है और इसलिए इसका नही आदि है और ना ही अंत।
सनातन धर्म मूलत: सृष्टि के सृजन करता काल से संपूर्ण विश्व के लिए एक ही रहा है एवं यह सनातन शब्द सबसे पहले ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुआ बाद में सप्त ऋषियों ने उसे व्याख्यायित किया और उसके अनुसार अपना दैनिक जीवनचार्य बनाया । भारत की वसुंधरा योगियों, ऋषियों द्वारा अनुभव करने वाले , ऋषियों के चरण राज से पूर्ण रहा है । यहां की आध्यात्मिक प्रकाश और दर्शनिकता ने सारे संसार को प्रकाशित किया है ।
आज भी भारतवर्ष संसार के सब देशों में शांति एवं एकता का संदेश देता रहा है और यही सत्य प्रेम और अहिंसा तथा अहिंसात्मक मनोवृति के कारण सारे देश में एक तपस्वी महात्मा की राम की टेक लगाने वाले सत्याग्रह अहिंसा के पुजारी की छत्रछाया में अपनी शक्ति का उपार्जन किया है और यही सनातन धर्म का मुख्य संदेश है। शरीर मन प्राण और आत्मा की उत्पत्ति का साधन अध्यात्म ज्ञान में है, वह मनुष्य मात्र के लिए एक है । समस्त विश्व की उन्नति होनी चाहिए सारे देश हमारे हैं , मनुष्य समाज सारे संसार का एक है , उनका व्यावहारिक जीवन विभिन्न प्रदेशों और स्थान पर होने पर भी सबका लक्ष्य एक ही है , सुखमय जीवन और प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक विकास करना इसलिए शांति के लिए आत्मिक विकास के लिए सनातन धर्म ही एक उत्थान कl मार्ग है अन्यत्र नहीं है और इन सब ज्ञान की उत्पत्ति ही तो सनातन धर्म से हुआ है । मनुष्य मात्र के लिए प्राण , सूरज की किरनें, भोजन वस्त्र की समान आवश्यकता है इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य के जीवन के विकास के लिए शरीर मन बुद्धि प्राण आत्मा के उत्थान की आवश्यकता है । इसलिए मनुष्य मात्र सनातन धर्म से उत्पन्न है । सनातन धर्म किसी संप्रदाय की वस्तु नहीं है , किसी जाति देश और वर्ण के बंधन में नहीं है , इसके द्वारा मनुष्य मात्र का उत्थान होता है। यहीं से सनातन संस्कृति का प्रचलन शुरू हुआ और यह संपूर्ण विश्व के लिए एक ही था। बाद में वैदिक युग में इसे और भी सुंदरता से प्रचारित किया गया एक समय यह सनातन संस्कृति पूरे विश्व भर के लोग मानते थे । परंतु बाद में अनेक विचारधाराए समाज में प्रचलित होने लगे और यह धीरे-धीरे ऐतिहासिक बदलाव के कारण अलग-अलग समुदाय का रूप लेने लगा। इसका मुख्य कारण था विभिन्न कारणो से धर्मांतरण , सामाजिक संघर्ष , नए म मतों एवं विचारों ने समाज में , विश्व के कोने कोने में अलग-अलग समूह के रूप में संबोधित होने से अलग-अलग संप्रदाय का रूप धारण किया एवं इसे ही धर्म का रूप दे दिया । वस्तुतः यह सभी संप्रदाय हैं और सनातन के टुकड़े-टुकड़े होकर ही अलग-अलग रूप में एवं नाम से विकसित होने लगे । नए मतों के चकाचौंध में सनातन संस्कृति धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया ।
सनातन धर्म में संपूर्ण विश्व का एक समान चेतन विकास होना था परंतु प्राकृतिक संप्रदाय से युक्त होने के कारण क्रमशः पृथक पृथक सामाजिक धरातल का निर्माण होता गया एवं देश की उन्नति कई विचारों एवं भागों में बढ़ता चला गया । मानव का झुकाव जैसे-जैसे भौतिकता की ओर होता गया कहीं ना कहीं जीवन का ह्रास र्होता गया एवं मूल अध्यात्म का लोप होता गया जिससे आत्मा जीवात्मा का क्रमशः धीरे-धीरे पतन होता गया । यह समाज अथवा राज्य अथवा देश के लिए एवं विश्व के लिए अशांति की तरफ बढ़ता हुआ एक माध्यम बना। समाज के विद्वान एवं नीतिज्ञ एवं विचारक लोग भी धर्म से मत मतांतर एवं संप्रदाय की ओर मुड़ने लगे एवं अलग-अलग विचारों के अलग-अलग समुदाय एवं समाज के निर्माण की तरफ बढ़ने लगे जिसका प्रभाव यह हुआ की विश्व कई समुदाय में अलग-अलग संप्रदाय के रूप में विकसित हुए एवं फलने फूलने लगे । इस प्रकार मानव समाज ने अपने विचारों भावनाओं एवं ज्ञान के आधार पर अलग-अलग भागों में विभाजित होने लगे और अपने सनातन मूल ज्ञान से पृथक होते गए , जिसका परिणाम हमारे सामने परिलक्षित हो रहा है। आज समाज अलग-अलग मत-मतांतरों की राह पर चलकर पतन के घोर गर्त की तरफ बढ़ता जा रहा है । समाज मूल धर्म को छोड़कर प्राकृतिक ज्ञान तक ही अपने को सीमित करता जा रहा है । भौतिकवाद , अशांति , स्वार्थ सिद्धि , चरित्र की अवनति , सभी बुराइयों का प्रतीक रावण , हिरंकाश्यप , राजा कंस आदि हुआ करते थे , जिसके कारण समाज में धर्म का लोप सा हो गया था , मानव जाति मजबूरी बस धर्म के रास्ते जीवन जीने के लिए मजबूर हो रहे थे , उस समय भी धर्म की स्थापना हेतु सनातन ज्ञान द्वारा ऋषियों ने एवं देवों ने बुराई का अंत कर सनातन धर्म की स्थापना की थी। परंतु आज भी समाज अनेक मत मतानुसार रखकर धर्म के मार्ग से विचलित हो रहा है एवं समाज की राजनीतिकरण प्रभाव से सनातन धर्म घुट रहा है एवं धन और शास्त्र के अनुचित प्रयोग के कारण विश्व अशांति की ओर बढ़ता जा रहा है । जब तक मानव जीवन धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं होगा तब तक समाज एक सनातन धर्म में अपने को संयोजित नहीं कर सकता एवं तब तक समाज देश एवं विश्व में शांति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता एवं स्थिर समाज का निर्माण भी नहीं हो सकता । उत्तम चरित्र और सद्व्यवहार ही समाज को योग्य , शांतिमय, आध्यात्मिक एवं आनंददायक बन सकता है ।
अतः सामाजिक शिक्षा सर्वप्रथम हमें ध्यान देने की आवश्यकता है । जैसे पूर्व काल में सामाजिक शिक्षा धर्म परायण हुआ करता था वैसे ही आज भी प्रारंभ से ही आध्यात्मिक शिक्षा का ज्ञान शिक्षण संस्थानों में दिया जाना चाहिए , जिससे समाज एक सूत्र में बढ़ सके एवं मानव जीवन के पूर्ण पुरुषार्थ को पूर्ण रूपेण ज्ञान का रूप में अध्ययन कर सके एवं मानव अपने जीवन को अर्थ , धर्म , कर्म और मोक्ष की और पूर्णता के साथ आगे बढ़ा सके एवं एक समान समाज का निर्माण हो सके , तभी सामान्य ज्ञानानंद की प्राप्ति कर मानव अपने जीवन को आनंदित कर पाएगा सम समाज का निर्माण सामाजिक शिक्षा , राजनीतिक शिक्षा , सैनिक , अर्थ , शिल्प , वाणिज्य, कला कौशल पूर्ण रूप से समान रूप से विकसित हो सकेगा । यह संपूर्ण कार्य मूल आधार से ही हो सकेगा और यह आधार केवल और केवल सनातन धर्म ही है । अन्यथा और कोई मार्ग नहीं है जहां आधार प्राकृतिक होगा वहां अलग-अलग भौतिक विचारों शक्तियों के संग्रह के कारण अलग-अलग विचारों की उत्पत्ति होगी एवं समाज विभिन्नताओं में बढ़कर एक संघर्ष का रूप लेगी एवं शांति एवं संभव का अभाव महसूस होगा जिसका परिणाम मानवता एवं संस्कृति के मूल्य पर होगा । इसी का परिणाम है कि आज विश्व समाज अशांति के गर्त में पहुंच गया है एवं संघारक मनोवृतियों की उत्पत्ति हुई है एवं युद्ध का परिणाम सामने दिख रहा है अतः आज उन्नत सील राष्ट्र हो या उन्नत राष्ट्र हो सभी युद्ध की आग में लिप्त हैं अथवा बचने की कोशिश कर रहे हैं । एक प्रकार का संघारक प्रवृत्ति संपूर्ण विश्व में दिखाई दे रहा है । अतः यह स्पष्ट है की आत्मा की ध्वनि ही समाज का मूल कारण हो सकता है और यही सनातन है और विश्व मात्र का धर्म है , विश्व के लिए सनातन समाज की स्थापना आज भी हमारा उद्देश्य है जिससे कि उचित कर्तव्य का ज्ञान , उचित व्यवहार का ज्ञान , समान रूप से विश्व समाज को आध्यात्मिक धरातल से प्राप्त हो सके और इस आध्यात्मिक धरातल से इसी प्रकाश से प्रकाशित होकर विश्व का कल्याण हो सके । इस प्रकार भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म की उत्कृष्ट गरिमा परिलक्षित होता है एवं संपूर्ण मानवता के जागरण का संदेश देता है ।
” सर्वे भवंतु सुखिना , सर्वे संतु निरामया , ” का संदेश देता है भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म विश्व समाज की सूखी उत्तम जीवन की कामना करता रहा है कर रहा है और करता रहेगा l इस प्रकार उत्तम मानव जीवन , उन्नत संस्कारों से युक्त हो आचार-विचार प्रशस्त हो यही भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म का संदेश है , यही वास्तविक सर्वांगीण जीवन दर्शन का पाठ सीखना है क्योंकि यह आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता से युक्त सृष्टि मात्रा को एक संदेश देता है l संस्कृत भाषा के विश्व प्रसिद्ध विद्वान इंग्लैंड के HS विल्सन ने भी स्पष्ट किया है कि :
” यlवद भारतवर्ष , स्याधावव्दिन्ध्य हिमालयो ।
यवद गंगा चं गोदावरी चं तावदेव हि संस्कृतम् ।।
अर्थात जब तक सृष्टि है विंध्य और हिमालय पर्वत है , गंगा और गोदावरी है, अर्थात ऋष्टि काल तक यह सनातन भारतीय संस्कृति रहेगी।
भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म इन्हीं विशेषताओं के कारण मानवतावादी चिंतन के लिए महान मार्गदर्शक एवं विश्व प्रतिबद्ध रहा है, एवं सत्य न्याय और अहिंसा के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है।
यह “परोपकाराय पुण्याय” के विचार दर्शन का उद्घोषक रहा है।
एक तरफ “सत्यमेव जयते” भारतीय संस्कृति का उदात्त उद्घोष है तो दूसरी ओर “सर्वे भद्राणि पश्यंतु” इसका ध्येय पथ है।
भारतीय सनातन धर्म संस्कृति के संपूर्ण सांस्कृतिक और दार्शनिक चिंतन “वसुधैव कुटुंबकम” की भाव भूमि पर प्रतिष्ठित है।
अनेक राष्ट्र कवियों ने भारतीय सनातन संस्कृति पर विभिन्न शब्दों से उल्लेखित किया है।
राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है –
भारत नहीं स्थान का वाचक , गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं सील यह भूमंडल भर का है ।।
जहाॅ कहीं एकता अखंडित , जहां प्रेम का स्वर है।
देश-देश में वहां खड़ा, भारत जीवित भास्वर है ।।
भारतीय सनातन संस्कृति की विश्व के अनेक दार्शनिकों से वर्णन किया है, एवं इसका अध्ययन किया है, इस्से ज्ञानोपार्जन किया , और इसकी उपयोगिता एवं रहस्य विश्व को अवगत कराया एवं स्पष्ट किया है कि-
“इस संपूर्ण धरती पर ज्ञान को अपना आवास बनाने के लिए अगर कहीं उतरना हो तो वह भूमि भारत ही है”
विश्व के महान ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टाॅयमनबी का कथन है कि-
“जब कभी विश्व किसी चौदहे पर दिगभ्रमित होता है तो भारतीय ज्ञान चिंतन के प्रकाश की कोई किरण उसका पथ प्रदर्शन करती रही है।”
ऐसे अनेकों विश्व प्रसिद्ध दार्शनिकों एवं चिंतकों ने भारतीय संस्कृति को विश्व का मार्गदर्शन एवं ज्ञान स्रोत बताया है जिनमें कुछ प्रबल प्रशंसक है मैक्स मूलर , बेबर कोलबुक, ग्रिफिथ, मैकडॉनल्ड कीथ, पारजिटर , विंटर, नित्ज, बुलानर, लुडविड और शापेन हावर, सर विलियम जॉन्स आदि के नाम उल्लेखनीय है।
भारतीय संस्कृति की विविधता सनातन का ही अंश है और इसलिए विविधता में एकता का संदेश प्रस्फुटित होता रहा है। विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाज, विभिन्न भाषाएं , विभिन्न परंपराएं , विभिन्न मत-मतांतर , विभिन्न प्रकार की पूजा पद्धतियों के होते हुए भी सभी मे एकत्व.के मूल मे सनातन संस्कृति ही विद्यमान है जो की प्रकृति से चेतन की गमन का ज्ञान प्रदान करती है, सनातन भारतीय संस्कृति का यह भाव है कि-
“सुख शांति सबको मिले , यह उपदेश हमार ,
सारा विश्व हमार है , हम हैं सब संसार ।”
इसी विचारधारा ने भारत को विश्व पटल पर अटूट बंधन से जो रखा है एवं मानवता के धरातल पर प्रकृति से अध्यात्म की ओर आज भी विश्व भारत के रास्ते पर गतिमान है।
इसी की पुष्टि करते हुए हमारे ऋषि-महर्षियों ने विश्व को प्राकृतिक योग से चेतन योग तक ज्ञान की आधारशिला से युक्त कर रखा है और यह स्पष्ट है आज भी कि-
“यदि बात धर्म अथवा आध्यात्म की आती है तो भारत ऋषि काल से हि विश्व गुरु रहा है, आज भी है और सृष्टि के अंत तक भी रहेगा क्योंकि यही भारत ज्ञान का स्रोत रहा है और रहेगा”
ऋषि युग से ही भारत अध्यात्म का स्रोत रहा है सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति एक निर्विवाद सत्य है की धर्म की धरती पर इसकी उत्पत्ति हुई है, इसका मूल आधार सनातन ही है और यह प्रकृति से पड़े हैं और इस प्रकार भारतीय सनातन धर्म एवं संस्कृति अपने उदात्त चिंतन को सुरक्षित रखने में हमेशा से समर्थ रही है और विश्व के लिए समान रूप से उपयोगी है।
“पर उपकारी विश्व का, सर्वदेश सब जाति ।
सबके शुभचिंतक रहे, द्वंद जाती नहीं पाती ।।
भेस भाषा भाव जग में ज्ञान पर दर्साइये।
समृद्धि सुख शांति धरातल, स्वर्ग भूमि बनाइये ।।”
यही भाव का ज्ञान हमें प्रदान करता है सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति विश्व में पूर्ण सुख शांति की स्थापना हो, उच्च नीच का भाव तथा अशांति को दूर कर मानव जीवन के बीच के भेदभाव को मिटा दें सारे विश्व में पूर्ण शक्तिमान एकछत्र एक समान सनातन धर्म आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित हो। संपूर्ण धरती पर सुख संपत्ति तथा शांति बनी रहे और स्वरगोपम सुख समृद्धि प्राप्त हो यही सनातन धर्म का मर्म है, भाव है, उद्देश्य है और आत्मयुक्त स्पर्श है-
“विश्व शांति नाम मंगल, परम गुरु को ध्याइये।
वर्ग द्वंद अशांति दूर कर, भाव भेद मिटाइये।।
भेस भाषा भाव जगमय, ज्ञान पर दर्शाइये।
समृद्धि-सुख शांति धरातल, स्वर्ग भूमि बनाइयेश।।”