मजदूर हैं हम मजदूरों की पीड़ा को गाने निकले हैं, जाड़ा गर्मी वर्षा सहकर हर उजरत पूरी करते हैं: दुष्यंत व्याकुल
साहित्य।
मजदूर हैं हम मजदूरों की पीड़ा को गाने निकले हैं।।
कृषको सत्ता के बनियों का अंतर समझाने निकले हैं।।
रोटी का संचय ही सारे कृषकों की वैदिक पीड़ा है।।
अपना हक माँग नहीं पाते मुख पर कुछ भय कुछ व्रीडा है।।
इसलिए हुकूमत नियम सभी निज हित में पारित करती है।।
श्रमिकों के श्रम की कम से कम कीमत निर्धारित करती है।।
हम श्रमिकों को श्रम की वाजिब कीमत दिलवाने निकले हैं।।
मजदूर हैं हम मजदूरों की पीड़ा को गाने निकले हैं।।
जाड़ा गर्मी वर्षा सहकर हर उजरत पूरी करते हैं।।
चीथड़े पहनकर खेतों में मेहनत मजदूरी करते हैं।।
सत्ताएँ क्या जाने की घोड़ा घास किधर से खाता है
धरती की पावन माटी से हम श्रमिकों का क्या नाता है
हमसे पूछो हम बतलाएँ हम सब बतलाने निकले हैं।।
मजदूर हैं हम मजदूरों की पीड़ा को गाने निकले हैं।।
शोषण की सारी सीमाएँ सरकार पार कर बैठी है।।
बेबस किसान मजदूरों का अधिकार मारकर बैठी है।।
कब तक चुप चाप सहें आखिर इसकी भी कोई हद होगी।।
किस दिन खाली दमघोषों के पुत्रों से यह संसद होगी।।
हम सियासती शिशुपालों के अपराध गिनाने निकले हैं।।
मजदूर हैं हम मजदूरों की पीड़ा को गाने निकले हैं।।