हास्य कविता:- पल्टासन से उल्टासन तक
एक बार मै पड़ा बिमार,
खो गयी थी,
होने वाली , जय जयकार,
बहुत विचारा,
पर समझ न पाया।
बहुत चिकित्सा ,
उपचार करवाया,
मर्ज फिर भी ,
समझ न पाया।
हरदम मेरा जी घबराया,
कुछ नें झाड़ फूक सुझाया,
सब करवाया,
लाभ न पाया।
एक ने हकीम लुकमान,
का पता बताया,
चुपके से फिर,
मिलन करवाया।
हकीम लुकमान ने,
मेरी नब्ज दबाते ही कहा,
बिमारी ‘मियादी-कुर्सी’ का है,
दवा तो है मगर,
बेअसर करेगी आप पर।
फिर,
मैंने ‘पल्टासन’ सीखा!
इसी को,
अमल करता रहता हूँ।
स्वस्थ हूँ,लाभ होता है
जलते रोम के समय कि तरह,
वांसुरी बजाता हुँ।
मुझ पर जब भी ,
होती राजनैतिक प्रकोप,
बस,
एक पलटी मार लेता आया हुँ।
कभी सुशील से,
मिल करता शील,
कभी प्रशात,
करता मन शांत
हर तीन साल पर मर्ज ,
लौटता है,
मैं पल्टासन कर,
सब भूल जाता हुँ।
इस बार का प्रकोप ,
है फिर भारी,
मैने समझ बैठा ,
जगतधारी उपेन्द्र को अनाड़ी।
सब समझ बैठे है,
दाँव पर रहे उलटे है,
पल्टासन भी रामबाण नहीं ,
उल्टासन कि राह नहीं।
हकीम लुकमान भी,
अब नायाब नही ,
नींद चैन सब ,
मेरी गायब कही।
दिनेश प्रसाद सिन्हा, साउथ अफ्रीका।