Surya Satta
भूले बिसरे

जो अन्न-वस्त्र उपजायेगा, अब सो क़ानून बनायेगा ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा

 

 

जन्म दिवस पर विशेष : किसान आंदोलन के जनक ‘ स्वामी सहजानंद ‘सरस्वती
( दिनेश प्रसाद सिन्हा साउथ अफ्रीका )

साउथ अफ्रीका : इस क्रांतिकारी नारे के साथ जो छवि उभर कर मन में आती है, वह छवि एक ऐसे दंडी सन्यासी की है जिन्होंने रोटी को पैदा करने वाले किसान को भगवान से भी बढ़कर माना था, ऐसा व्यक्तित्व जिन्हें भारत में किसान आंदोलन शुरू करने का पूरा श्रेय जाता है. एक ऐसा दंडी संन्यासी जिसे भगवान का दर्शन भूखे, अधनंगे किसानों की झोपड़ी में होता है, जो परंपारनुपोषित सन्यास धर्म का पालन करने की बजाय युगधर्म की पुकार सुन भारत माता को ग़ुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़ता है, लेकिन अन्न उत्पादकों की दशा देख अंग्रेज़ी सत्ता के भूरे दलालों अर्थात देशी ज़मींदारों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का सूत्रपात करता है.

 

स्वामी सहजानंद सरस्वती जी का जन्म 22 फरवरी 1889 के शुभ महाशिवरात्रि के दिन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में हुआ था. वे आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के ‘दसनामी संन्यासी’ अखाड़े के दण्डी संन्यासी थे, साथ में एक कुशल किसान नेता, बुद्धिजीवी, लेखक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी और इतिहासकार भी थे. उनके साथ कदम से कदम मिलाकर किसान संघर्ष को आगे बढ़ाने में सर्वश्री एम जी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी जैसे वामपंथी और समाजवादी नेताओं की महती भूमिका थी. आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी चेहरे भी किसान सभा से जुड़े.

 

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए. आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ के ज़रिये हड़ताल कराया. उनकी प्रमुख रचनाओं में सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित “कर्मकलाप” नामक 1200 पृष्ठों की विशाल ग्रन्थ शामिल है. काशी के कुछ पंडितों द्वारा उनके सन्यास पर सवाल उठाने व यह कहने कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है, ऐसी कथन को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए उन्होंने विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ करके यह प्रमाणित किया कि भूमिहार, ब्राह्मण समुदाय के अभिन्न अंग हैं और हर योग्य व्यक्ति सन्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है, साथ ही उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो आगे चलकर “ब्रह्मर्षि वंश विस्तार” के नाम से सामने आया.

 

जमींदारी प्रथा के खिलाफ उनके संघर्ष ने जमींदारों द्वारा छोटे किसानों व मजदूरों के शोषण को राष्ट्रीय पटल पर ला खड़ा किया. किसानों की दुर्दशा को देखकर भिक्षुक साधु स्वामी सहजानंद सरस्वती जी का दिल कांप उठा था और उन्होंने 1927 में बिहटा के श्री सीताराम आश्रम पर वेस्ट पटना किसान सभा बुलाई जो आगे चलकर 1929 में सोनपुर में हुए किसानों के वार्षिक जमावड़े में “बिहार प्रोविंशियल किसान सभा” का रूप ले लिया. बी.पी.के.एस. ने किसानों के कई मसलों को अपने हाथ में लिया और जुझारू संघर्ष चलाया, स्वामी सहजानंद सरस्वती जी के निजी सहायक त्रिपुरारी शर्मा सुधारक के अनुसार स्वामी जी के नेतृत्व में बी.पी.के.एस. ने उन चार प्रमुख मसलों को लिया जो किसानों की जिंदगी में व्यापक तबाही मचाये हुये थे, यह थे:
– हराई (जुताई) हराई के तहत बात यह थी कि सबसे पहले किसानों को अपने खेत में हल ले जाने से पहले जमींदारों के खेतों को जोतना था.

– बेगारी (बिना कुछ लिए श्रम करा लेना) जमींदार मजदूरी दिए बिना श्रमिकों से सेवाएं लेना चाहते थे.
– नाजायज वसूली (गैरकानूनी ढंग से यानी जबरन उगाही)
– मुफ्तखोरी (छिनैती), किसानों से सब्जी, दूध, आदि जैसी वस्तुओं को मुफ्त में मांगी जाती थी, जबरदस्ती छीन ली जाया करती थी.
बी.पी.के.एस. का दस्तावेज यह खुलासा करता है कि ऐसे नाजायज कर शाहाबाद में 20 तरह के, मसौढा परगना में 9 और गया जिले में 24 प्रकार के रहे.

बी.पी.के.एस. ने बहुत से भूमि सुधार आंदोलनों की शुरुआत कर उनका नेतृत्व किया. मध्य बिहार की कृषि संबंधी ढांचे पर इन आंदोलनों का एक व्यापक प्रभाव पड़ा है. कुछ ज्यादा प्रभावशाली आंदोलनों में शुमार हैं, 1936-38 के दौरान बड़हिया, ताल, रेवड़ा, मजियावाना और अमवारी में हुए बकाश्त आंदोलन और 1938-39 के बीच बिहटा की डालमिया शुगर फैक्ट्री में चलाया गया आंदोलन. इनमें किसानों और मजदूरों ने एक साथ मिलकर लड़ाई लड़ी. परिणाम यह निकला कि डालमिया को हारना पड़ा, पूरे मन से लगकर संघर्ष तो शाहाबाद, सारण, दरभंगा, पटना, चंपारण और भागलपुर जिलों में भी छेड़े गये लेकिन इनमें से ज्यादा जुझारू किसान संघर्ष रहा, वह था बड़हिया ताल का बकाश्त आंदोलन जो कई साल तक चलता रहा. 1947 में आयोजित किए गए बी.पी.के.एस. के 12वें सम्मेलन के दौरान अपने अध्यक्षीय भाषण में कार्यानंद शर्मा ने बताया था कि इस किसान आंदोलन ने रोजी, आजादी और इज्जत (भोजन, स्वतंत्रता और स्वाभिमान) की लड़ाई लड़ी है.

किसान सभा पहले अपने प्रस्ताव के मुताबिक ‘वर्गीय सहयोगी’ की भूमिका में थी लेकिन किसान संघर्षों से हुए अनुभव ने इसे वैचारिक युक्ति-चाल में बदलने की दिशा प्रदान की| स्वामी जी ने बाद में लिखा कि जमींदारों के अत्याचारों को अपनी आंखों से देखने के बाद उन्होंने किसानों और जमींदारों के बीच समन्वय समरसता लाने की मनसा को छोड़ दिया और नए विकल्प की तलाश में लग गए. दस्तावेज बताते हैं कि बी.पी.के.एस. के तले आने वाले निचले तबकों के लोगों में किसी भी तरह का सांप्रदायिक दुराव-भेदभाव नहीं था और महिलाएं भी किसान संघर्षों में भाग लेती थीं। किसान सभा ने वर्ग संघर्ष को ध्यान में रखकर सोंचना और बोलना शुरु कर दिया था ताकि कृषि मजदूर और गरीब किसान अपनी प्रभावी भूमिका को कारगर ढंग से अदा करें, अपने सामाजिक-आर्थिक हितों के मद्देनजर समाज का निचला तबका सचेत था और यह लोग वर्गीय चेतना से लैस होते गये.

बी.पी.के.एस. संगठन में भूमिहार किसानों की बहुलता के बावजूद समय गुजरने के साथ खेतिहर मजदूरों के संघर्ष की लड़ाई के लिए ठान ली. श्री स्वामी सहजानंद सरस्वती किसान हित के मुद्दों पर सरदार पटेल और गांधीजी जैसे कद्दावर व्यक्तित्व के सामने भी नतमस्तक नहीं हुए, सरदार पटेल जी जैसे नेताओं ने जमींदारों को उचित मुआवजा दिए जाने का जब सवाल उठाया तो सहजानंद सरस्वती और किसान सभा ने घोषणा कर दी कि जमींदारों को किसी तरह का मुआवजा दिया जाना वैध-डकैती है, स्वामी जी ने बड़े जमींदारों को मुआवजा दिए जाने के प्रस्तावित योजना को जोरदार ढंग से नकारते हुए कहा:

“यह कहा गया कि बड़े जमींदारों की भूमि तभी ली जानी चाहिए जब तक कि उन्हें अधिक मुहावजा न दिया जाए, यह बात बिल्कुल ठीक है लेकिन मेरा दिमाग इसे समझने में बिल्कुल नाकाम है कि ऐसा किस प्रकार से संभव है. ऐसा करने में 50 साल लगेंगे….इसके लिए हमें 50 करोड़ रूपये की जरूरत होगी.
स्वामी सहजानंद सरस्वती और गांधीजी के बीच वह अंतर भी उन्हीं मौलिक विभेदों की ओर इंगित करते हैं जो आमूल परिवर्तनकारी भूमि सुधारवादी आंदोलनों और वैसे शांतिपूर्ण किसान-संघर्षों के बीच मौजूद रहे है. गांधीजी ने भूमि सम्बन्धी प्रतिरोध शांति से चलाने की वकालत की जबकि श्री स्वामी जी ने नारा दिया था, “कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा ज़िन्दाबाद”, समय के साथ यही नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया. स्वामी सहजानंद सरस्वती जी ने कहा कि अत्याचारी लोग शांतिप्रियता की भाषा नहीं समझते हैं हालांकि स्वामी सहजानंद का दंड स्वभाव में धार्मिक था लेकिन तब तक यह एक आर्थिक और राजनीतिक हथियार बन चुका था.

जमींदारी प्रथा के ख़िलाफ़ लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून ,1950 को मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में दलितों का संन्यासी चला गया. आज़ादी मिलने के साथ ही सरकार ने क़ानून बनाकर ज़मींदारी राज को खत्म कर दिया.

मरणोपरांत ही सही स्वामी जी की सबसे बड़ी मांग पूरी हो गयी, लेकिन किसानों को सुखी-समृद्ध और खुशहाल देखने की उनकी इच्छा पूरी न हो सकी. उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया. देश में किसानों के संगठन कई हैं, लेकिन एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो किसानों में सर्वमान्य हो और जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो. ऐसे समय में स्वामी सहजानंद और ज़्यादा याद आते हैं, जिन्होंने किसान को संगठित और शोषण मुक्त बनाने में अपना सम्पूर्ण जीवन बलिदान कर दिया. ऐसे महान विभूति को उनके जयंती पर बारम्बार नमन तथा स्मरण.

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