मंगलवार से सुरू होगी नैमिषारण्य की 84 कोसी परिक्रमा
मदन पाल सिंह अर्कवंशी
सीतापुर : प्रत्येक वर्ष उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में स्थित नैमिषारण्य(Naimisharanya) क्षेत्र से शुरू होने वाले विश्व विख्यात 84 कोसी परिक्रमा(world famous 84 kosi parikrama) का आगाज मंगलवार को होगा. नैमिषारण्य क्षेत्र के इस 84 कोसी परिक्रमा में देश के कोने – कोने से साधु-संत और श्रद्धालुओं ने हिस्सा लेते है. यह परिक्रमा फाल्गुन मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक चलेगी.
पूर्णिमा को पूर्ण होती है 84 कोसी परिक्रमा
84 कोसी परिक्रमा के चार पड़ाव हरदोई जनपद में व सात पड़ाव सीतापुर में स्थित हैं. श्रद्धालु प्रतिदिन एक पड़ाव पर रात्रि विश्राम करते है इस दौरान पडाव स्थल पर साधु संत कीर्तन भजन करते हुए अगले पड़ाव की ओर प्रस्थान कर जाते हैं. 11 पड़ावों का भ्रमण करते हुए श्रद्धालु दशमी तिथि को महर्षि दधीचि की तपोभूमि मिश्रित पहुचते हैं. यहां परिक्रमार्थी पूर्णिमा तक पंचकोसी मिश्रित तीर्थ की परिक्रमा करते हैं. इसके बाद होलिका दहन और दधिचि कुंड में स्नान के साथ परिक्रमार्थी अपने अपने घरों के लिए प्रस्थान कर जाते हैं.
इन पड़ावों पर परिक्रमार्थी करते हैं रात्रि विश्राम
फाल्गुन मास की अमावस्या की प्रतिपदा को नैमिषारण्य से प्रारंभ हुई 84 कोसी परिक्रमा का पहला विश्राम कोरौना, दूसरा विश्राम हरदोई जनपद के हरैया, तीसरा पडाव नगवा, चौथा पड़ाव कोठावां, पांचवा पड़ाव गोपालपुर व छठा पड़ाव सीतापुर के देवगवां, सतवां पडाव मड़रूआ, आठवां पड़ाव जरिगंवा, नवमी को नैमिषारण्य व दसवां पड़ाव कोल्हुआ बरेठी (चित्रकूट) को होगा. वहीं ग्यारहवं पड़ाव मिश्रित में होगा. मिश्रित में ही परिक्रमार्थी पांच दिनों तक दधीचि तीर्थ की पंचकोसी परिक्रमा करेगें.
यह है पौराणिक मान्यता
मान्यता है कि नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसी परिक्रमा का आरम्भ सत्युग में महार्षि दधीचि के द्वारा किया गया था. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपने कुटुंब जनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की. द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डवों द्वारा नैमिषारण्य क्षेत्र की परिक्रमा की.
ऐसे प्रारंभ हुई 84 कोसी परिक्रमा
मान्यता है कि सत्युग में एक बार जब वृत्रासुर दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया. इस दौरान देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया. लेकिन सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए. अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा. इंद्रदेव भागकर ब्रह्मा विष्णु व शंकर के पास पहुंचे. लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है, जिससे वृत्रासुर दैत्य का वध हो सके. त्रिदेवों की ऐसी बात सुनकर इंद्र देव मायूस हो गये. इन्द्र की दयनीय स्थिति देख कर भगवान शंकर ने उन्हें उपाय बताया कि पृथ्वी लोक पर महार्षि महार्षि दधीचि रहते हैं. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को कठौर बना लिया है. उनकी शरण में जाओ और उनसे संसार के कल्याण के लिए उनकी अस्थियों के दान के लिए याचना करो.
महर्षि दधिचि से उनकी अस्थियां मांगने पहुंचे इंद्र देव
इन्द्र देव ने ऐसा ही किया और वह नैमिषारण्य क्षेत्र में स्थित उनके आश्रम पर पहुंचे और महार्षि महार्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया और उनकी अस्थियों को दान में मांगा. इस पर दधिचिजी ने अपनी हड्डियों के दान के लिए तैयार हो गये. लेकिन महार्षि महार्षि दधीचि ने इन्द्र से कहा, मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थ नहीं किया, सिर्फ तप व सधना ही में लीन रहा हूं. इस लिए मैं चाहता हूं कि संसार के समस्त तीर्थों व समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं, फिर अपनी अस्थियों का दान कर दूंगा. यह सुन कर इन्द्र देव सोच में पड़ गये कि यदि महार्षि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय हो बीत जायेगा.
नैमिषारण्य क्षेत्र में सभी देवी-देवताओं को दिया गया स्थान
इसके बाद समस्त तीर्थों व 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया गया. इन सभी को 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान दिया गया. तब महार्षि महार्षि दधीचि ने एक एक कर सभी तीर्थों व देवताओं के दर्शन करते हुए कुछ ही समय में अपने आश्रम पहुचें. यहां पर सभी तीर्थों के जल को एक सरोवर में मिलाया गया. उसी में महार्षि ने स्नान करके अपनी हड्डियों का दान देवताओं को कर दिया. जिस तीर्थ में संसार के सभी तीर्थों के जल को मिला गया उसे मिश्रित तीर्थ के नाम से जाना जाता है. तभी से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की प्रतिपदा से सुरू होने वाले नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस परिधि की परिक्रमा में लाखों की संख्या में साधु संत व श्रद्धालुओं भग लेने पहुंचते है. मान्यता है कि जो भी श्रद्धा भाव से नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस की परिक्रमा कर लेता है वह 84 लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है.