हम तुम्हारी गली के मुसाफ़िर नही, तुम कोई दूसरा हमसफ़र ढूँढ लो
दुष्यंत यादव (व्याकुल)
हिन्दी कविता
हम तुम्हारी गली के मुसाफ़िर नही,
तुम कोई दूसरा हमसफ़र ढूँढ लो।।
रंग,खुश्बू जो गुल तुम्हें चाहिए
गुल में खुश्बू न वो रंग भर पाएँगे।।
तुम नचाती रहो हमको हर ताल पर
वो तमाशा न हम खुद का कर पाएँगे।।
जिनको मंजूर हों खुद की रुसवाईयाँ
इस जहाँ में उन्हें इक नज़र ढूँढ लो।
हम तुम्हारी गली के मुसाफ़िर नही,
तुम कोई दूसरा हमसफ़र ढूँढ लो।।
तुममें नखरे बहुत हैं कि दिलकश हो कम
ये हकीकत तुम्हें सब बताते नही।।
तुमको आदत लगी है चकाचौंध की
हम उजालों की महफ़िल में जाते नही।।
इन अंधेरों में बेहद सुकूँ है मुझे
तुम उजालों के जलते शहर ढूँढ लो।।
हम तुम्हारी गली के मुसाफ़िर नही,
तुम कोई दूसरा हमसफ़र ढूँढ लो।।
दुष्यन्त व्याकुल