महर्षि दधीचि ने विश्वकल्याण के लिए अपनी अस्थियों का यहां किया था दान
मदन पाल सिंह अर्कवंशी
लखनऊ। उत्तर प्रदेश(UP) की राजधानी लखनऊ(capital Lucknow) से 85 किलोमीटर दूर नैमिषारण्य (Naimisharanya) क्षेत्र में दधीचि कुंड (Dadhichi Kund) स्थित, जिसे मिश्रित तीर्थ(Misrit tirth) के नाम से भी जाना जाता है. सत्युग काल(satyug period) में इस स्थान पर महर्षि दधीचि का आश्रम(Maharishi Dadhichi’s Ashram) था. महर्षि दधीचि का जन्म सत्युग काल में भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था. वृत्रासुर(Vritrasura) नामक दैत्य के वध के लिए देवराज इन्द्र(Devraj Indra) ने महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियों के दान(bone donation) के लिए इसी स्थान पर याचना की थी.
क्या है महर्षि दधीचि के अस्थि दान की कथा
सत्युग काल में एक बार वृत्रासुर नाम का एक दैत्य देवलोक पर आक्रमण कर दिया. देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर दैत्य पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किए. लेकिन देवताओं के सभी अस्त्र शस्त्र वृत्रासुर के कठोर शरीर से टकराकर टुकडे़ टुकड़े हो रहे थे. अंत में देवराज इन्द्र सहित सभी देवताओं को अपने प्राण बचाकर देवलोक से भागना पड़ा. देवराज इन्द्र सहित सभी देवता भगवान ब्रह्मा, विष्णु व भगवान शिव के पास गया. लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई अस्त्र शस्त्र नहीं है. जिससे वृत्रासुर दैत्य का वध हो सके.
भगवान ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की ऐसी बातें सुनकर देवराज इन्द्र मायूस हो गया. देवराज इन्द्र सहित सभी देवताओं की दयनीय स्थिति देखकर भगवान शिव ने कहा कि पृथ्वी लोक पर एक महामानव दधीचि हैं. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को अत्यंत कठोर बना लिया है. उनके आश्रम में जाकर संसार के कल्याण हेतु उनकी अस्थियों का दाम मांगो.
देवराज इन्द्र ने महर्षि दधीचि से अस्थियों के दान के लिए यहां की थी याचना

जिसके बाद देवराज इन्द्र ने नैमिषारण्य क्षेत्र में स्थित महर्षि दधिचि के आश्रम पहुंचे. और देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि से याचना करते है कि हे भगवन एक वृत्रासुर नाम का दैत्य हम सभी का उत्पीड़न कर रहा है. और हम सभी देवताओं को परेशान कर रहा है. इस की मृत्यु का रहश्य केवल आप की अस्थियों में विराजमान है. इस लिए अपनी अस्थियों का दान मुझे प्रदान करदे. इतना सुनकर महर्षि दधीचि ने कहा कि मेरा अहोभाग्य है कि नश्वर अस्थियों की याचना देवराज इन्द्र करने आये है. मैं अवस्य दान करूंगा जनकल्याण, विश्वकल्याण, देवकल्याण हेतु. परन्तु मैंने समस्स तीर्थों के दर्शन व स्नान करने का संकल्प लिया है सभी तीर्थ स्नान करने के बाद मैं देवदर्शन प्रदिच्क्षणा करने के बाद में अपनी अस्थियों का दान दे दुंगा. यह सुन कर इन्द्र देव सोच में पड़ गये. यदि महर्षि दधीचि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय बीत जायेगा.
नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस परिधि में साढ़े तीन कोटि देवताओं को दिया गया था स्थान
इस पर देवराज इन्द्र ने संसार के समस्त तीर्थों सहित आकाश पाताल, मृत लोक से साढ़े तीन कोटि देवताओं को जो करोड़ों की संख्या से ज्यादा है सभी को नैमिषारण्य की 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान प्रदान किए. फाल्गुन मास की प्रतिपदा को महर्षि दधीचि ने सभी तीर्थों व देवताओं के दर्शन किए. और संसार के समस्स तीर्थों के जल को एक कुंड़ में मिलाकर कर महर्षि दधीचि ने स्नान किया. सभी तीर्थों के मिले जल के कारण इस स्थान का नाम मिश्रित पड़ा. वही इसे दधीचि कुंड़ के नाम से भी जाना गया.
महर्षि की हड्डियों से विश्वकर्मा ने निर्मित किए थे कई अस्त्र
स्नान करने के बाद दधीचि जी ने अपने शरीर पर नमक और दही लगाकर देवराज इन्द्र की सुरा गाय से चटाया गया. जिसके बाद देवराज इन्द्र ने हड्डियों को लेजाकर विश्वकर्मा से कई अस्त्र निर्माण कराये. जिनके नाम गांडीव, पिनाक, सारंग और बज्र हुआ. गांडीव प्रथम अग्नि देवता को मिला जो द्वापरयुग में अर्जुन के काम आया जिससे महाभारत की विजय हुए. पिनाक शंकर जी को मिला, त्रेतायुग में जनकपुर में सीता स्वयंवर में भगवान श्री राम द्वारा तोडा गया. सारंग विष्णु भगवान जी ने लिए और विश्व की रक्षा की. बज्र की संख्या केवल आधी बताई गई है जिसके द्वारा महाबली वृत्रासुर का संहार हुआ. उसके बाद देवलोक पर देवताओं का वास हो सका.
कौन थे महर्षि दधीचि
ब्रह्माजी के मानस पुत्र अथर्वा थे जो अथर्व वेद के मंत्र दृष्टा थे. जिनका विवाह महर्षि कर्दम की पुत्री भगवती शान्ता से हुआ था. अथर्व की पत्नी शान्ता ने दधीचि को सत्युग काल में भाद्र माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को अर्ध रात्रि से कुछ समय पूर्व जन्म दिया था. महर्षि दधीचि को दध्यंग्ड, अथर्वण(अथर्वनंदन) अश्वशिरा नाम से भी जाना जाता है. विध्या अध्ययन के पश्चात दधीचि का विवाह त्रृण बिन्दु राजा की पुत्री सुवर्चा से हुआ था. सुवर्चा के गर्भ से महर्षि पिप्पलाद का जन्म हुआ.
भगवान विष्णु द्वारा महर्षि दधीचि को नारायण कवच का प्रभाव बताकर उसे धारण कर स्वयं दधीचि नारायण हुए.
इस स्थान का उल्लेख सामवेद, ऋग्वेद, अथर्ववेद, स्कन्द महापुराण, महाभारत, पदमपुराण, देवी भगवतीपुराण, वामनपुराण, शिवपुराण, मृम्हावैर्वत पुरण सहित अन्य ग्रन्थों में मिलता है.
किसा कारण से महर्षि दधीचि का अश्वशिरा पड़ा नाम
देवेश्वर इन्द्र द्वारा महर्षि दधीचि को मधु विद्या का ज्ञान इस शर्त पर कराया कि इस विद्या को किसी अन्य को बताने पर उनका सर काट डाला जायेगा. परन्तु महर्षि दधीचि ने इस विद्या को लोकोपकार के लिए अश्विनी कुमारों के कहने पर उन्हें अपने सिर को अलग कराकर घोड़े के सिर को स्थापित करा लिया और अश्विनी कुमारों को विद्या दे दी. इस से क्रोधित इन्द्र ने दधीचि के सर को धड़ से अलग कर दिया. जिसके बाद अश्विनी कुमारों ने दधीचि के पुनः उनके मानव मस्तिष्क (सर) को स्थापित कर दिया था. जिसके कारण उनका नाम अश्वशिरा पड़ा.
दधीचि तीर्थ परिसर में भगवान विष्णु व लक्ष्मी, भगवान शंकर पार्वती, माता अष्ट भुजा, बीर भद्र, बालाजी, राधाकृष्ण मंदिर, दधीचेश्वर महादेव मंदिर के अतिरिक्त महर्षि दधीचि, दधीचि के पिता अथर्वा, माता शान्ता, पत्नी सुवर्चा, पुत्र पिप्पलाद, बहन दधिमती के मंदिर स्थापित है.