84 कोसी परिक्रमा के प्रथम पड़ाव का जाने क्या है पौराणिक महत्व
सीतापुर। नैमिषारण्य( Naimisharanya) क्षेत्र में होने वाले 84 कोसी परिक्रमा का महत्व(Significance of 84_Kosi_Parikrama) चार युगों से जुड़ा हुआ है. परिक्रमा के दौरान पड़ने वाले पड़ाव स्थल भी काफी महत्वपूर्ण माने गए हैं. फाल्गुन मास की प्रतिपदा से शुरू हुई 84 कोसी परिक्रमा में देश के कोने-कोने से पहुंचे साधु संत व श्रद्धालुओं ने प्रथम पड़ाव स्थल कोरौना (Sadhu saints and devotees made the first stop at Korauna) में रात्रि विश्राम किया. शुक्रवार सुबह दूसरे पड़ाव हरैया के लिए निकल गए.
सतयुग में जब महर्षि दधीचि(In Satyuga when Maharishi_Dadhichi) ने इंद्रदेव को अपनी हड्डियों का दान करने से पूर्व नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोसी परिधि की परिक्रमा की थी. इस दौरान उन्होंने 33 कोटि देवी-देवताओं(33 categories of deities) व तीर्थों का दर्शन किया. महर्षि दधीचि ने जिन-जिन स्थानों पर रात्रि विश्राम किया, वह पड़ाव स्थल के नाम से जाने जाते हैं. महर्षि दधीचि प्रथम रात्रि जिस स्थान पर रूके, उसे कोरौना पड़ाव कहा जाता है. त्रेता युग में भगवान श्री राम ने अपने परिवार के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की थी. वहीं, द्वापर में भगवान श्री कृष्ण व पांडवों ने भी नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस की परिक्रमा की थी.
त्रेतायुग में प्रथम पड़ाव स्थल पर भगवान श्रीराम ने किया था अश्वमेघ यज्ञ
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम (Lord_Shri_Ram_in Tretayuga) को उनके अनुज लक्ष्मण ने अश्वमेध यज्ञ(ashwamedha_yagya) कराने की सलाह दी थी. इसके बाद अश्वमेध यज्ञ की तैयारियां की जाने लगीं. भगवान श्रीराम ने अपने कुल पुरोहित वशिष्ठ जी से यज्ञ के लिए सबसे उपयुक्त स्थान के विषय में पूछा. वशिष्ठ ने नैमिषारण्य क्षेत्र को सबसे उपयुक्त स्थान बताया था.


नैमिषारण्य क्षेत्र के कारण्डव वन में अश्वमेध यज्ञ किया
इसके बाद नैमिषारण्य क्षेत्र के कारण्डव वन में यज्ञ किया गया. इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के पेज संख्या 816 व स्कन्द पुराण के प्रथम अध्याय में मिलता है. गोमती नदी के कुछ उत्तर की ओर वह स्थान त्रेतायुग में कारन्डव वन था जो आज कोरौना के नाम से जाना जाता है. यहां भगवान श्रीराम द्वारा अश्वमेध यज्ञ किया गया था. भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग आज भी प्रमाण के तौर पर यहां मौजूद है. जिस स्थान पर अश्वमेध यज्ञ किया गया, वहां यज्ञ वाराह कूप भी मौजूद है. इस कूप का जीर्णोद्धार 1984 में स्वामी अभिलाषानंद ट्रस्ट द्वारा कराया गया था. इससे पूर्व भी तत्कालीन राजा-महराजाओं के द्वारा कूप का जीर्णोद्धार समय-समय पर कराया जाता रहा. इस कारण यह पौराणिक यज्ञ वाराह कूप आज भी अस्तित्व में है. वहीं, अहिल्या तीर्थ व अरुंधती कूप भी मौजूद है.
कुलगुरू महर्षि गर्गाचार्य से मिलने नैमिषारण्य पहुंचे थे द्वारिकाधीश
द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण अपने कुलगुरू महर्षि गर्गाचार्य से जब मिलने के लिए अपनी चतुरंगी सेना के साथ नैमिषारण्य पहुंचे तो उन्होंने नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस परिक्रमा के प्रथम पड़ाव स्थल पर अपना डेरा डाला. यहां से अपने कुलगुरू गर्गाचार्य से मिलने उनके अश्राम पैदल पहुंचे. जहां भगवान श्रीकृष्ण ने डेरा डाला था, वहां राधा व कृष्ण की प्रचीन मूर्ति स्थापित है. उस मंदिर को द्वारिकाधीश के नाम से जाना जाता है. फलगुन मास की प्रतिपदा की सुबह (बीते गुरुवार) को परिक्रमार्थियों द्वारा चक्रतीर्थ में स्नान के बाद प्रथम पड़ाव स्थल कोरौना में रात्रि विश्राम किया. शुक्रवार सुबह द्वारिकाधीश तीर्थ में स्नान व मार्जन के बाद भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग के दर्शन व द्वारिकाधीश मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण व राधा के दर्शन के बाद साधु संत अगले पड़ाव हरैया के लिए निकल पड़े.