Surya Satta
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गांधीवादी सोच से प्रेरित होने के बावजूद दिनकर अपने को कहते थे बुरा गांधीवादी

( दिनेश प्रसाद सिन्हा, साउथ अफ्रीका से)
 लेख। 
रामधारी सिंह दिनकर एक भारतीय हिंदी कवि, निबंधकार और चिकित्सक थे, जिन्हें सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक हिंदी कवियों में से एक माना जाता है. दिनकर राष्ट्रवादी कवियों में राष्ट्रवादी कविता के साथ एक विद्रोही कवि के रूप में उभरे। उनकी कविता ने वीर रस को उकसाया, और राष्ट्रवाद की भावना को बढाने वाली प्रेरणादायक देशभक्तिपूर्ण रचना के कारण उन्हें राष्ट्रकवि (“राष्ट्रीय कवि”) के रूप में सम्मान दिया गया.
उनके सम्मान के रूप में, उनके चित्र को भारत के प्रधानमंत्री, डॉ मनमोहन सिंह द्वारा साल 2008 में, भारत की संसद के केंद्रीय हॉल में लगाया गया था. दिनकर ने शुरू में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन बाद में वह गाँधीवादी बन गये। हालांकि, वह अपने आप को ‘बुरा गाँधीवादी’ कहते थे, क्योंकि उन्होंने युवाओं के बीच आक्रोश और बदला लेने की भावनाओं का समर्थन किया.
कुरुक्षेत्र में, उन्होंने स्वीकार किया कि युद्ध विनाशकारी था, लेकिन उन्होंने कहा है कि स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक था। दिनकर तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए, और वह 3 अप्रैल, 1952 से जनवरी 26, 1964 तक इस सभा के सदस्य थे और 1959 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.
आपात-काल के दौरान, जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में एक लाख लोगों की एक सभा में रामधारी दिनकर की कविता को शानदार ढंग से पढ़कर जनता को आकर्षित किया था। कविता का शीर्षक था, “सिंहासन खाली करो की जनता आती है.
जीवन परिचय 
दिनकर बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में 23 सितम्बर 1908, एक गरीब भूमिहार ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। एक छात्र के रूप में, दिनकर के पसंदीदा विषय इतिहास, राजनीति और दर्शनशाष्त्र थे। उन्होंने हिंदी, संस्कृत, मैथिली, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। उनकी मृत्यु24 अप्रैल1974 (उम्र 65)मद्रास,तमिलनाडु, में
हुआ था.
दिनकर इक़बाल, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स और मिल्टन से काफी प्रभावित हुए थे। उन्होंने बंगाली से हिंदी में रवींद्रनाथ टैगोर के कार्यों का अनुवाद भी किया.
 रामधारी सिंह ‘दिनकर’, जिन्हें “राष्ट्रकवि” कहा जाता है, उन्होंने अपनी प्रेरक देशभक्तिपूर्ण रचना के कारण राष्ट्रवादी भावना पैदा की। दार्शनिक-कवि, श्री दिनकर ने हिंदी साहित्यकारों में लौकिक ‘सूर्य’ की तरह बढ़ोतरी की.
कार्य उनके काम ज्यादातर ‘वीर रस’ में हैं। ज़ाहिर है, उर्वशी एक अपवाद है। उनकी सबसे बड़ी कृतियां हैं – ‘रश्मिरी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’। ‘भूषण’ के बाद से उन्हें ‘वीर रस’ का सबसे बड़ा हिंदी कवि माना गया है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि वे उन लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं जिनकी मातृभाषा भाषा हिंदी नहीं थी और वे अपनी मातृभाषा के लिए प्रेम के प्रतीक थे. हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि उनके उचित सम्मान के लिए उन्हें चार ज्ञान-पीठ पुरस्कार – कविता, गद्य, भाषाओं और हिंदी में उनकी सेवा के लिए मिलना चाहिए। रामवृक्ष बेनिपुरी ने लिखा है कि दिनकर देश में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए आवाज़ दे रहे हैं। नामवर सिंह ने लिखा है कि वह वास्तव में अपनी उम्र के सूर्य थे.
हिंदी लेखक राजेंद्र यादव, जिनके उपन्यास “सारा आकाश” में भी दिनकर की कविता की कुछ पंक्तियां थीं. उन्होंने कहा कि वह हमेशा पढ़ने के लिए बहुत ही प्रेरक थे। उनकी कविता पुनरुत्थान के बारे में थी. वह अक्सर हिंदू पौराणिक कथाओं को अभिव्यक्त करते हैं और कर्ण जैसे महाकाव्य के नायकों को संदर्भित करते हैं.
प्रसिद्ध हिंदी लेखक काशीनाथ सिंह कहते हैं कि वह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी कवि थे. उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक संतों के  सामाजिक, आर्थिक असमानताओं और वंचितों के शोषण के उद्देश्य को लिखा। एक प्रगतिशील और मानवतावादी कवि, जिन्होंने इतिहास और वास्तविकता को सीधे और उनकी कविता के साथ संयुक्त वक्तावादी शक्ति का प्रयोग किया. उर्वशी का विषय आध्यात्मिक, उनके आध्यात्मिक संबंधों से अलग प्यार, जुनून और पुरुष और महिला के संबंध को दर्शाता है। उर्वशी नाम एक अप्सरा (उर्वशी) नाम से लिया गया है, जो हिंदू पौराणिक भगवान इंद्र की अदालत के स्वर्गीय युवती थी.
उनका कुरुक्षेत्र महाभारत के संती पर्व के आधार पर एक कथा है। यह उस समय लिखा गया जब द्वितीय विश्व युद्ध की यादें कवि के मन में ताजा थीं। उनका संम्भणी कविओं का एक संग्रह है जो कवि की सामाजिक चिंता को दर्शाती है जो राष्ट्र की सीमाओं से परे है.
अपनी रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में उन्होंने कहा कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और स्थलाकृति के बावजूद भारत एकजुट हो गया है, क्योंकि हम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन  हमारे विचार एक समान हैं. उन्होंने पटनाविश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने.
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय  के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठपुरस्कार प्रदान किया गया. अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे. द्वापर युग की ऐतिहासिघटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया.
1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे. 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए. दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए.
 फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं. चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया.
रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे. रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था. दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था,

 नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके

“देखने में देवता सदृश्य लगता है बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो समझो उसी ने हमें मारा है.
1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था. यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक :-
“रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीरफिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥”
इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा-:-
“क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषाइसलिए बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?” यह सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोगसन्न रह गए थे. किस्सा 20 जून 1962 का है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले,
“देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते. पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है. पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही. मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?.
यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई, ठसाठस भरी सभा में भी गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा-चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा- ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है, गांधीवादी सोच से प्रेरित होने के बावजूद दिनकर अपने को बुरा गांधीवादी कहते थे.

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