भोजपुरी के “शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर ” और उनका लौंडा नाच
आज 18 दिसम्बर 2022 है आज ही के दिन 1887 में भिखारी ठाकुर का जन्म हुआ था. भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे. वे बहु आयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे. वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं. वे एक महान लोक कलाकार थे जिन्हें ‘भोजपुरी का शेक्शपीयर’ कहा जाता है.
ठाकुर नेभोजपुरी क्षेत्र में लौंडानाच और भिखारी ठाकुर पर्यवाची की तरह हैं. भारत में लोकनाट्य विधाओं की एक समृद्ध परंपरा है. उन्हीं लोकनाट्य विधाओं की प्रचलित परंपरा में से एक महत्वपूर्ण परंपरा है ‘नाच’ विधा की परंपरा. ‘नाच’ बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिस्सों में किया जाने वाला एक प्रचलित सांगितिक लोकनाट्य है. ‘नाच’ भारत के विभिन्न लोकनाट्यों जैसे कि नौटंकी, नाचा, स्वांग, जात्रा और तमाशा से काफ़ी समानता रखता है. उनकी प्रसिद्धी बिहार तथा उत्तर प्रदेश में तब भी थी आज भी है.
‘नाच’ में गीत, संगीत, नृत्य, नाटक, कॉमिक, कलाबाजी को सम्मिलित रूप से एक क्रम (sequence) में परफॉर्म किया जाता है. ‘नाच’ रात 7-8 बजे से शुरू हो कर सुबह के 4-5 बजे तक चलता है. पीभारत के दूसरे क्षेत्रीय नाट्य संस्कृतियों की तरह ही ‘नाच’ में भी महिलाओं की भूमिका पुरुष कलाकारों द्वारा ‘स्त्री वेशधारण’ (female impersonation) कर निभाई जाती जिन्हें लौंडा कहा जाता है,इसलिए नाच को ‘लौंडा नाच’ के नाम से भी जाना जाता है.
‘लौंडा नाच’ कुछ साल पहले तक उस गंवई एवं कस्बाई समाज के किसान मजदूरों की अभिव्यक्ति और मनोरंजन का सबसे सशक्त विधा था. हालांकि आज के इस बदलते हुए मनोरंजन संस्कृति में इनके प्रदर्शन काफी कम हुए हैं लेकिन अभी भी कई नाच दल न सिर्फ अस्तित्व में हैं बल्कि आज के समय और समाज के बदलाव को समझते हुए इस नाच को और ज्यादा विस्तृत किया है.
बिहार में ‘नाच’ विधा के सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध कलाकार रहें हैं भिखारी ठाकुर. भिखारी ठाकुर बीसवीं शताब्दी के महान लोक नाटककारों-कलाकारों में से एक रहे हैं जिन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर भी कहा जाता है. भिखारी ठाकुर ने सन 1917 में अपने नाच मंडली की स्थापना कर भोजपुरी भाषा में बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, पिया निसइल, गंगा-स्नान, नाई-बाहर, नकल भांड आ नेटुआ सहित कई नाटक, सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा एवं गीतों की रचना की है.
उन्होंने अपने नाटकों और गीत-नृत्यों के माध्यम से तत्कालीन भोजपुरी समाज की समस्याओं और कुरीतियों को सहज और प्रभावशाली तरीके से ‘नाच’ के मंच पर प्रस्तुत करने का काम किया था। उनके नाच में किया जाने वाला ‘बिदेसिया’ उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक है.
1930 से 1970 के बीच भिखारी ठाकुर की नाच मंडली असम और बंगाल के कई शहरों में जा कर टिकट पर नाच दिखती थी. बिलकुल सिनेमा जैसा सिनेमा के समानान्तर भिखारी ठाकुर के नाटक आज भी प्रासंगिक हैं.
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर, 1887 को बिहार राज्य के छपरा जिले के छोटे से गांव क़ुतुबपुर के एक सामान्य नाई परिवार में हुआ था. पिता दलसिंगर ठाकुर एवं माता शिवकली देवी सहित पूरा परिवार जज़मानी व्यवस्था के अंतर्गत अपने जातिगत पेशा (हजामत बनाना, चिट्ठी नेवतना, शादी-विवाह, जन्म-श्राद्ध एवं अन्य अनुष्ठानों तथा संस्कारों के कार्य) किया करता था. परिवार में दूर तक गीत, संगीत, नृत्य, नाटक का कोई माहौल नहीं था.
नाच विधा से जुड़ने के पूर्व भिखारी ठाकुर के जीवन को समझने के लिए उनके जीवनी गीत का सहारा लिया जा सकता है. जिसमें उन्होंने लिखा है कि “जब वो नौ वर्ष के थे तब पढ़ने के लिए स्कूल जाना शुरू किया. एक वर्ष तक स्कूल जाने के बाद भी उन्हें एक भी अक्षर का ज्ञान नहीं हुआ तब वे अपने घर की गाय को चराने का काम करने लगे. धीरे-धीरे अपने परिवार के जातिगत पेशे के अंतर्गत हजामत बनाने का काम भी करने लगे. जब हजामत का काम करने लगे तब उन्हें दोबारा से पढ़ने लिखने की इच्छा हुई. गांव के ही भगवान साह नामक बनिया लड़के ने उन्हें पढ़ाया. तब जा कर उन्हें अक्षर ज्ञान हुआ और उनकी शादी हो गई.
रोज़ी-रोटी कमाने के मक़सद से भिखारी ठाकुर खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) चले गए. वहां से फिर मेदनीपुर गए. मेदनीपुर में वे रामलीला देखा करते थे. कुछ समय बाद वे वापस अपने गांव आ गए तथा गीत-कवित्त सुनने लगे. सुन कर लोगों से उसका अर्थ पूछ कर समझने लगे और धीरे-धीरे अपने गीत-कवित्त, दोहा-छंद लिखना शुरू कर दिए.
एक बार गांव के लोगों को इकट्ठा कर रामलीला का मंचन भी किया. तीस वर्ष की उम्र होने के बाद अपनी नाच मंडली बना ली. नाच में जाने का उनके मां-बाप विरोध करते थे, वे छुप-छुप कर नाच में जाते थे। कलाकारी दिखा कर पैसे कमाते.
भिखारी ठाकुर से पहले रसूल मियां और गुदर राय इस नाच विधा के मशहूर कलाकार रहे हैं. नाच विधा के ढांचागत या संरचनागत स्वरूप में भिखारी ठाकुर ने कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया. गीत-संगीत, नृत्य और अंत में नाटक किए जाने के स्वरूप को उन्होंने वैसे ही रखा,परंतु विषय-वस्तु के स्तर पर भिखारी ठाकुर ने नाच विधा को कई नए नाटक, प्रसंग एवं गीत दिए.
भिखारी ठाकुर से पहले के नाच में मुख्यतः लोककथाओं पर आधारित नाटक या छोटे-छोटे सामाजिक प्रसंग पर नाटक करने का सूत्र मिलता है,परंतु भिखारी ठाकुर ने सामाजिक विषय पर तत्कालीन समय के हिसाब से नाटक रचे. इतना ही नहीं अपनी नाटकों में भोजपुरी समाज में प्रचलित लोक गीत, नृत्य की विधाओं को भी खूब शामिल किया.
नाटकों के चरित्र, समाजीक, लबार, सूत्रधार, संगीत, नृत्य, को सुदृढ़ इस्तेमाल किया। अपनी धुन एवं अपना ताल विकसित की और रच डालें कई नाटक, प्रसंग एवं गीत.
उनके प्रसिद्ध नाटक प्रंसग ये है
1. बिदेसिया 2. भाई-बिरोध 3. बेटी-बियोग उर्फ़ बेटी-बेचवा 4. बिधवा-बिलाप 5. कलियुग-प्रेम उर्फ़ पिया निसइल 6. राधेश्यम-बहार 7. गंगा-स्नान 8. पुत्र-बध 9. गबरघिचोर 10. बिरहा-बहार 11. नकल भांड आ नेटुआ के और 12. ननद-भउजाई.
भजन-कीर्तन, गीत-कविता जो आज भी प्रसिद्ध है:
1. शिव-विवाह 2. भजन कीर्तन (राम) 3. रामलीला गान 4. भजन-कीर्तन (श्रीकृष्ण) 5. माता-भक्ति 6. आरती 7. बूढ़शाला के बेयान .8. चौवर्ण पदवीं .9. नाई बाहर .10. शंका-समाधान 11. विविध और12. भिखारी ठाकुर परिचय
अक्सर भिखारी ठाकुर के नाच को ‘बिदेसिया’ (Bidesiya) शैली कहा जाता है। अकादमिक जगत एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ-साथ शहरी रंगकर्मी भी भिखारी ठाकुर की शैली को ‘बिदेसिया’ शैली का नाम देते हैं. इस नामकरण के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि बिदेसिया की प्रसिद्धि की वजह से इस नाम का उपयोग उनके शैली के लिए किया गया है. परंतु ध्यान देने वाली बात यह है जितने भी विद्वान बिदेसिया को एक शैली के रूप में उसके तत्व और प्रस्तुति प्रक्रिया के साथ परिभाषित करते हैं वो सभी तत्व एवं प्रस्तुति प्रक्रिया नाच विधा की है. जिसमें नायिका का नायक कलकत्ता कमाने जाता है और नायिका ग्रामीण परिवेश में उसके इंतजार में सर्घष करती है.
मेरा मानना है भिखारी ठाकुर ने कहीं भी बिदेसिया का उपयोग शैली के रूप में नहीं किया है. कितना भी हो-हल्ला हो जाए गांव में आज भी भिखारी ठाकुर की विधा को नाच ही कहा जाता है बिदेसिया शैली नहीं. इसके उलट शहर में इसे बिदेसिया कहा जाता है.
भिखारी ठाकुर की रंगमंचीय यात्रा की शुरुआत शादी-विवाह के अवसर पर आयोजित नाच से शुरू हुई थी जिसमें उन्होंने ‘बिरहा-बहार’ नामक नाटक, जो अब बिदेसिया नाम से जाना जाता है, से हुआ था. उसके बाद भिखारी ठाकुर ने एक से बढ़ कर एक नाटक, गीत, नृत्य की रचना की.
जिस प्रकार पारसी थिएटर एवं नौटंकी मंडलियां देश के अनेक शहरों में जा-जा कर टिकट पर नाटक दिखाया करती थीं उसी प्रकार नाच मंडलियां भी टिकट पर नाच करती थीं. भिखारी ठाकुर ने असम, बंगाल, नेपाल आदि जगहों पर खूब टिकट शो किया। अपने समय में भिखारी ठाकुर नाच विधा के स्टार कलाकार बन गए थे.
अंग्रेज़ों ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि दी तो साहित्यकारों के बीच ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ और ‘अनगढ़ हीरा’ जैसे नाम से सम्मानित हुए. उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी उनके नाच के सामने कोई सिनेमा देखना तक पसंद नहीं करते थे. उनकी एक झलक पाने के लिए लोग कोसों पैदल चल कर रात-रात भर नाच देखते थे.
10 जुलाई1971 में भिखारी ठाकुर के मृत्यु के बाद भी उनकी ‘नाच’ मंडली चलती रही. उनके परिवार और रिश्तेदारों ने उनके नाच को कई वर्षों तक चलाया परंतु धीरे-धीरे यह दल टूट-बिखर गया तथा आधुनिकता में लगभग मृत प्रायः हो गया है. लेकिन अभी भी उनकी लोक प्रियता कम नही हुई है.
उनके नाम पर कई सम्मान सरकार अन्य को सम्मनित करती है लेकिन इस महान रंगकर्मी को अभी भी राष्ट्र के सम्मानित करने के नाम पर सरकारें सोई ही रही है. दिनेश प्रसाद सिन्हा, साउथ अफ्रीका से .